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ये कागज़ चुपचाप सब सुन लेता है,
'जो तुमसे कह न सका', उसे... भी बुन लेता है।
तेरी यादें, तेरे वादे, तेरे फासले,
सब समेटकर, इन्हीं लफ़्ज़ों में बांध लेता है।

लिख देता हूं सारी आहें,
ये कागज़ ही तो है, तुम्हारी बाहें।
एक स्याही से इन्हें, इस तरह पिरो दूं,
चंद अश्कों को, पलकों तले गिरो दूं।

पर तुम्हे क्या ! तुम कहा समझ पाओगे !
इन स्याही की गहराइयों में, क्या डूब पाओगे?
या फिर, इन्हें भी सराह कर आगे बढ़ जाओगे?
हर अल्फ़ाज़ की पीड़ा, जो सांसों में बसती है,
क्या तुम्हारी नज़रों में भी, वही तस्वीर सजती है?

फिर भी लिखता हूं, क्योंकि यही तो मेरा सहारा है,
इन शब्दों में छुपा, मेरा... बिखरा दिल सारा है।
जो तुम तक पहुंचे, तो शायद, कुछ सिमट जाए,
या फिर बस यूं ही, ये ग़म भी, हवा... में खो जाए।
सांसों के हर एहसास में तुम्हें बसा लेंगे,
तुम बस धड़कनों से दूर न जाने का, वादा तो करो।

जिक्र तुम्हारा हर महफिल में करेंगे,
तुम बस उन किस्सों में रहने का, वादा तो करो ।

हम दुनिया के सारे चेहरे भुला देंगे,
तुम बस अपनी एक झलक दिखाने का, वादा तो करो ।

तुम्हारी दी हुई चोट को हम जख्म बना लेंगे,
तुम बस मरहम लगाने का, वादा तो करो ।

दिल की हरेक बात आंखों से ही कह देंगे,
तुम बस नजरें चुराने का, वादा तो करो ।

इंतजार तो हम उम्र भर कर लेंगे,
तुम बस मौत सा मिल जाने का, वादा तो करो ।
लोग कहते हैं-
"क़िस्मत में जो लिखा होता है वही होता है"
तू जता तो सही,मैं वो लिखे पन्ने फाड़ दूँ,
वास्ते मैं तेरे, आसमान के सारे बादल झाड़ दूँ।
जो तू माँगे फूल, मैं पूरी बगिया झटक दूँ,
रख क़दमों में ये जहाँ भी पटक दूँ।


लोग कहते हैं-
"तोड़ लाऊँगा चाँद, रख दूँ तेरे हाथों में"
कुछ तो छुपा है इन ही ख्वाबी बातों में।
तू रौशनी भरदे मेरी रातों में,
तू साथ तो आराम इन काँटों में,
इस चाँद में न तुझसा नूर है,
क्या ये भी तुझसा ही कहीं दूर है ?


और ये ?-
तेरी चुप्पी को भी शब्द ज़रिये लिख लूँ,
जैसे तू कहे तो दो दरिये जोड़ना सीख लूँ।
अभी जो है ख्वाब उसे हक़ीक़त में गुंदना है,
जो तू न हो तो मुझे ये आँखें ना.. मूंदना है।
फुर्सत में जोडूंगा वो पन्ने जो मैने फाड़े हैं,
और लिखूं नया एक किताब... जिसमें सिर्फ़ "हमारा" नाम है।


तू कह तो सही क़लम उठा लूं?

जो लिखा नहीं, वो अफ़साने भी सच होते हैं।
मैं लिख दूँ नया एक दास्ताँ तेरे नाम का,
जो हुं सिर्फ़ तेरा, कि हो सिर्फ़ मेरा.....
कुछ और लिखूँ आ रही थोड़ी शरम,
या है कोई मन का एक मात्र भरम.......
एक डोर बंधी थी उस पतंग से,
उसे क़ैद करने की चाह थी या आज़ाद।
पर यह पतंग भी तो बेईमान है,
न जाने इसे किस बात का गुमान है।

जब हवा साथ दे तो खिल-खिलाता है,
खींचती डोर से सिसक संभल जाता है,
इसकी रवानी इन्हीं बीच तो बसी है,
बहते हवा सहलाते हाथ, बंधी डोर में फंसी है।

कभी आसमाँ छूने का जुनून,
तो कभी हवाओं संग बहने का सुकून,
ढिलती डोर अनंत दुनिया दिखाएगी,
खींचती डोर इसे दायरे भी सिखाएगी।

क्या हो अगर वो डोर टूट जाए,
उन हाथों से नखरे छूट जाए,
क्या वो बेशक़ रिहाई है,
या बे-बाक सी जुदाई है।

क्या वो छूटी डोर फिर से जुड़ जाएगा,
उन उलझी डोर से फिर उड़ पाएगा,
उसकी उड़ान में हाथों की परछाई है,
पर ये भी एक अधूरी सच्चाई है ।

पतंग ही वो डोर समेट आएगा,
हवा की लहरों पर इल्जाम लगाएगा,
हाथों को नए-नए ख्वाब दिखाएगा,
फिर अंत में उन्हीं लहरों संग उड़ जाएगा।

अब छोड़ ही दी, बंधन की वो डोर,
कर 'काई पो चे' का गूंजता शोर,
अब वो पतंग उड़े जहाँ हवा ले जाए,
रुख मोढ़ यहीं लौट के आए...!
जब दूर सी थी तू कहीं,
तो सवाल कई सारे थे,
कुछ मेरे, कुछ तेरे, तो कुछ हमारे बारे थे।
आज वही सवाल किए जाते, तो क्या होता?


» खैर,
एक बात तो है तुझमें,
कि "तुझसे ही हर बात थी"
लेकिन, वो बात हुई ही न होती, तो क्या होता?

तू उस 'आसमान' की, वो 'चाँद' थी मेरी,
जिसकी चमक, दिल को रोशन कर दिया करती थी।
आसमान तो है ही, पर चाँद वही होता, तो क्या होता?


» माना,
भोला, मासूम और हाँ... मैं नासमझ,
पर यही बात तुम समझाए होते, तो क्या होता?

वो हँसती हुई शामें, वो बातें पुरानी,
जो दिल के किसी कोने में, अब भी बसी हैं।
अगर वक़्त वहीं थम गया होता, तो क्या होता?

ये जो ग़म के बादल छाए हैं,
बरस रही हैं बूँद.... (अश्कों की)
ये बरसात हुई ही न होती, तो क्या होता?
दीवार के किसी कोने पे टंगी...
जिस तस्वीर को देख... निहारता था,
उस तस्वीर पे.. न जाने कैसा गर्द है,
तुझे देख भी ...न देख पाने सा.. जैसा कुछ दर्द है
अब भी आँखों में है, ख़्वाब तेरे सवालों के,
और जवाबों में लिपटा... हर लफ्ज़ पिरौन है।
अपने इस शहर में... कोई अपना भी कौन है।
कानो में फुसफुसाती वो... नग़मा भी मौन है।
देख, तेरा इंतेज़ार यूं.. किया तो है मैने,
पर मेरा सब्र भी जैसे... अब सबरी हो गया ।
! धुंध की इस गर्द में... तेरा चेहरा कही तो खो गया।

क्या, वो तस्वीर, अब सिर्फ़... एक निशानी है,
वक़्त की उस धुंध में, खोई सी कहानी है।
जिसको देख कभी दिल, मुस्कुराता था,
आज वही अक्स... एक बेनाम सी परेशानी है।
कभी जो आंखों में जिंदा था वो नज़ारा,
जैसे एकही राह में भटकता बंजारा । ........
......

यह एहसास कुछ ऐसा है,...वो वैसा... न जाने कैसा है
तस्वीर पर जमी धूल सी है.. ये शिकायत,
जो कभी साफ़ करो तो...धुंधला सा कुछ अक्स दिखे।
मायूस चेहरे पर मासूमियत एक श्रृंगार,
जैसे अमावस में चाँदनी की बहार ।

हर दर्द को छुपा लेता है ये नूर,
जैसे काँटों के बीच खिला कोई फूल।

खामोशियों में बसी है एक कहानी,
जो ख्वाबों में लिखती है अपनी जुबानी।

ये मायूसी, ये मासूमियत का मेल,
जैसे परों को मिल गई हो उड़ान, पर छूटे नहीं जेल।

बेड़ियां जड़ी हो, फिर भी उम्मीद खड़ी हो,
जैसे धूप के सपने पर छांव कहीं पड़ी हो ।
जो मुस्कान है लबों पे तेरे,
वो राज के पन्नों को खोले मेरे।
पर मुस्कान वो, जो कह जाए,
फिर भी कुछ भी ना सुनाए।

वो मुस्कान, जो शाम सी लगे,
दिल के दुखों को आराम सी लगे।
जो आई थी एक ख्वाब के हाथ,
और छोड़ गई एक याद के साथ।

वो मुस्कान, जो एक ज़ख्म भी हो,
और उसी ज़ख्म का मरहम भी हो।

वो मरहम है, जो दर्द मिटा दे,
या एक और घाव, जो दिल को रुला दे?

वो मुस्कान अब धूल हो गई,
भुला हमने, हाँ भूल हो गई।
उस मुस्कान की फरियाद,
हमेशा रहेगी याद...!

— The End —