ये कागज़ चुपचाप सब सुन लेता है,
'जो तुमसे कह न सका', उसे... भी बुन लेता है।
तेरी यादें, तेरे वादे, तेरे फासले,
सब समेटकर, इन्हीं लफ़्ज़ों में बांध लेता है।
लिख देता हूं सारी आहें,
ये कागज़ ही तो है, तुम्हारी बाहें।
एक स्याही से इन्हें, इस तरह पिरो दूं,
चंद अश्कों को, पलकों तले गिरो दूं।
पर तुम्हे क्या ! तुम कहा समझ पाओगे !
इन स्याही की गहराइयों में, क्या डूब पाओगे?
या फिर, इन्हें भी सराह कर आगे बढ़ जाओगे?
हर अल्फ़ाज़ की पीड़ा, जो सांसों में बसती है,
क्या तुम्हारी नज़रों में भी, वही तस्वीर सजती है?
फिर भी लिखता हूं, क्योंकि यही तो मेरा सहारा है,
इन शब्दों में छुपा, मेरा... बिखरा दिल सारा है।
जो तुम तक पहुंचे, तो शायद, कुछ सिमट जाए,
या फिर बस यूं ही, ये ग़म भी, हवा... में खो जाए।