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कुछ हीं क्षण में ज्ञात हुआ सारे संशय छँट जाते थे,
जो भी धुँआ पड़ा हुआ सब नयनों से हट जाते थे।
नाहक हीं दुर्योधन मैंने तुमपे ना विश्वास किया।
द्रोणपुत्र ने मित्रधर्म का सार्थक एक प्रयास किया।
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हाँ प्रयास वो किंचित ऐसा ना सपने में कर पाते,
जो उस नर में दृष्टिगोचित साहस संचय कर पाते।
बुद्धि प्रज्ञा कुंद पड़ी थी हम दुविधा में थे मजबूर,
ऐसा दृश्य दिखा नयनों के आगे दोनों हुए विमूढ़।
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गुरु द्रोण का पुत्र प्रदर्शित अद्भुत तांडव करता था,
धनुर्विद्या में दक्ष पार्थ के दृश पांडव हीं दिखता था।
हम जो सोचनहीं सकते थे उसने एक प्रयास किया ,
महाकाल को हर लेने का खुद पे था विश्वास किया।
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कैसे कैसे अस्त्र पड़े थे उस उद्भट की बाँहों में ,
तरकश में जो शस्त्र पड़े सब परिलक्षित निगाहों में।
उग्र धनुष पर वाण चढ़ाकर और उठा हाथों तलवार,
मृगशावक एक बढ़ा चलाथा एक सिंह पे करने वार।
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क्या देखते ताल थोक कर लड़ने का साहस करता,
महाकाल से अश्वत्थामा अदभुत दु:साहस करता?
हे दुर्योधन विकट विघ्न को ऐसे हीं ना पार किया ,
था तो उसके कुछ तोअन्दर महा देव पर वार किया ।
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पितृप्रशिक्षण का प्रतिफलआज सभीदिखाया उसने,
अश्वत्थामा महाकाल पर कंटक वाण चलाया उसने।
शत्रु वंश का सर्व संहर्ता अरिदल जिससे अनजाना,
हम तीनों में द्रोण पुत्र तब सर्व श्रेष्ठ हैं ये माना।
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अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
मृग मरीचिका की तरह होता है झूठ। माया के आवरण में छिपा हुआ होता है सत्य। जल तो होता नहीं, मात्र जल की प्रतीति हीं होती है। आप जल के जितने करीब जाने की कोशिश करते हैं, जल की प्रतीति उतनी हीं दूर चली जाती है। सत्य की जानकारी सत्य के पास जाने से कतई नहीं, परंतु दृष्टिकोण के बदलने से होता है। मृग मरीचिका जैसी कोई चीज होती तो नहीं फिर भी होती तो है। माया जैसी कोई चीज होती तो नहीं, पर होती तो है। और सारा का सारा ये मन का खेल है। अगर मृग मरीचिका है तो उसका निदान भी है। महत्वपूर्ण बात ये है कि कौन सी घटना एक व्यक्ति के आगे पड़े हुए भ्रम के जाल को हटा पाती है?
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मेरे भुज बल की शक्ति क्या दुर्योधन ने ना देखा?
कृपाचार्य की शक्ति का कैसे कर सकते अनदेखा?
दुःख भी होता था हमको और किंचित इर्ष्या होती थी,
मानवोचित विष अग्नि उर में जलती थी बुझती थी।
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युद्ध लड़ा था जो दुर्योधन के हित में था प्रतिफल क्या?
बीज चने के भुने हुए थे क्षेत्र परिश्रम ऋतु फल क्या?
शायद मुझसे भूल हुई जो ऐसा कटु फल पाता था,
या विवेक में कमी रही थी कंटक दुख पल पाता था।
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या समय का रचा हुआ लगता था पूर्व निर्धारित खेल,
या मेरे प्रारब्ध कर्म का दुचित वक्त प्रवाहित मेल।
या स्वीकार करूँ दुर्योधन का मतिभ्रम था ये कहकर,
या दुर्भाग्य हुआ प्रस्फुटण आज देख स्वर्णिम अवसर।
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मन में शंका के बादल जो उमड़ घुमड़ कर आते थे,
शेष बची थी जो कुछ प्रज्ञा धुंध घने कर जाते थे ।
क्यों कर कान्हा ने मुझको दुर्योधन के साथ किया?
या नाहक का हीं था भ्रम ना केशव ने साथ दिया?
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या गिरिधर की कोई लीला थी शायद उपाय भला,
या अल्प बुद्धि अभिमानी पे माया का जाल फला।
अविवेक नयनों पे इतना सत्य दृष्टि ना फलता था,
या मैंने स्वकर्म रचे जो उसका हीं फल पलता था?
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या दुर्बुद्धि फलित हुई थी ना इतना सम्मान किया,
मृतशैया पर मित्र पड़ा था ना इतना भी ध्यान दिया।
क्या सोचकर मृतगामी दुर्योधन के विरुद्ध पड़ा ,
निज मन चितवन घने द्वंद्व में मैं मेरे प्रतिरुद्ध अड़ा।
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अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित
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मन की प्रकृति बड़ी विचित्र है। किसी भी छोटी सी समस्या का समाधान न मिलने पर उसको बहुत बढ़ा चढ़ा कर देखने लगता है। यदि निदान नहीं मिलता है तो एक बिगड़ैल घोड़े की तरह मन ऐसी ऐसी दिशाओं में भटकने लगता है जिसका समस्या से कोई लेना देना नहीं होता। कृतवर्मा को भी सच्चाई नहीं दिख रही थी। वो कभी दुर्योधन को , कभी कृष्ण को दोष देते तो कभी प्रारब्ध कर्म और नियति का खेल समझकर अपने प्रश्नों के हल निकालने की कोशिश करते । जब समाधान न मिला तो दुर्योधन के प्रति सहज सहानुभूति का भाव जग गया और अंततोगत्वा स्वयं द्वारा दुर्योधन के प्रति उठाये गए संशयात्मक प्रश्नों पर पछताने भी लगे। प्रस्तुत है दीर्ध कविता “दुर्योधन कब मिट पाया का बाइसवाँ भाग।
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शत्रुदल के जीवन हरते जब निजबाहु खडग विशाल,
तब जाके कहीं किसी वीर के उन्नत होते गर्वित भाल।
निज मुख निज प्रशंसा करना है वीरों का काम नहीं,
कर्म मुख्य परिचय योद्धा का उससे होता नाम कहीं।
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मैं भी तो निज को उस कोटि का हीं योद्धा कहता हूँ,
निज शस्त्रों को अरि रक्त से अक्सर धोता रहता हूँ।
खुद के रचे पराक्रम पर तब निश्चित संशय होता है,
जब अपना पुरुषार्थ उपेक्षित संचय अपक्षय होता है।
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विस्मृत हुआ दुर्योधन को हों भीमसेन या युधिष्ठिर,
किसको घायल ना करते मेरे विष वामन करते तीर।
भीमसेन के ध्वजा चाप का फलित हुआ था अवखंडन ,
अपने सत्तर वाणों से किया अति दर्प का परिखंडन।
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लुप्त हुआ स्मृति पटल से कब चाप की वो टंकार,
धृष्टद्युम्न को दंडित करते मेरे तरकश के प्रहार।
द्रुपद घटोत्कच शिखंडी ना जीत सके समरांगण में,
पांडव सैनिक कोष्ठबद्ध आ टूट पड़े रण प्रांगण में।
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पर शत्रु को सबक सिखाता एक अकेला जो योद्धा,
प्रतिरोध का मतलब क्या उनको बतलाता प्रतिरोद्धा।
हरि कृष्ण का वचन मान जब धारित करता दुर्लेखा,
दुख तो अतिशय होता हीं जब रह जाता वो अनदेखा।
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अति पीड़ा मन में होती ना कुरु कुंवर को याद रहा,
सबके मरने पर जिंदा कृतवर्मा भी ना ज्ञात रहा।
क्या ऐसा भी पौरुष कतिपय नाकाफी दुर्योधन को?
एक कृतवर्मा का भीड़ जाना नाकाफी दुर्योधन को?
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अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित
किसी व्यक्ति के चित्त में जब हीनता की भावना आती है तब उसका मन उसके द्वारा किये गए उत्तम कार्यों को याद दिलाकर उसमें वीरता की पुनर्स्थापना करने की कोशिश करता है। कुछ इसी तरह की स्थिति में कृपाचार्य पड़े हुए थे। तब उनको युद्ध स्वयं द्वारा किया गया वो पराक्रम याद आने लगा जब उन्होंने अकेले हीं पांडव महारथियों भीम , युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, द्रुपद, शिखंडी, धृष्टद्युम आदि से भिड़कर उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया था। इस तरह का पराक्रम प्रदर्शित करने के बाद भी वो अस्वत्थामा की तरह दुर्योधन का विश्वास जीत नहीं पाए थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था आखिर किस तरह का पराक्रम दुर्योधन के विश्वास को जीतने के लिए चाहिए था? प्रस्तुत है दीर्घ कविता “दुर्योधन कब मिट पाया” का इक्कीसवां भाग।
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क्षोभ युक्त बोले कृत वर्मा नासमझी थी बात भला ,
प्रश्न उठे थे क्या दुर्योधन मुझसे थे से अज्ञात भला?
नाहक हीं मैंने माना दुर्योधन ने परिहास किया,
मुझे उपेक्षित करके अश्वत्थामा पे विश्वास किया?
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सोच सोच के मन में संशय संचय हो कर आते थे,
दुर्योधन के प्रति निष्ठा में रंध्र क्षय कर जाते थे।
कभी मित्र अश्वत्थामा के प्रति प्रतिलक्षित द्वेष भाव,
कभी रोष चित्त में व्यापे कभी निज सम्मान अभाव।
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सत्यभाष पे जब भी मानव देता रहता अतुलित जोर,
समझो मिथ्या हुई है हावी और हुआ है सच कमजोर।
अपरभाव प्रगाढ़ित चित्त पर जग लक्षित अनन्य भाव,
निजप्रवृत्ति का अनुचर बनता स्वामी है मानव स्वभाव।
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और पुरुष के अंतर मन की जो करनी हो पहचान,
कर ज्ञापित उस नर कर्णों में कोई शक्ति महान।
संशय में हो प्राण मनुज के भयाकान्त हो वो अतिशय,
छद्म बल साहस का अक्सर देने लगता नर परिचय।
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उर में नर के गर स्थापित गहन वेदना गूढ़ व्यथा,
होठ प्रदर्शित करने लगते मिथ्या मुस्कानों की गाथा।
मैं भी तो एक मानव हीं था मृत्य लोक वासी व्यवहार,
शंकित होता था मन मेरा जग लक्षित विपरीतअचार।
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मुदित भाव का ज्ञान नहीं जो बेहतर था पद पाता था,
किंतु हीन चित्त मैं लेकर हीं अगन द्वेष फल पाता था।
किस भाँति भी मैं कर पाता अश्वत्थामा को स्वीकार,
अंतर में तो द्वंद्व फल रहे आंदोलित हो रहे विकार?
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अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित
कृपाचार्य और कृतवर्मा के जीवित रहते हुए भी ,जब उन दोनों की उपेक्षा करके दुर्योधन ने अश्वत्थामा को सेनापतित्व का भार सौंपा , तब कृतवर्मा को लगा था कि कुरु कुंवर दुर्योधन उन दोनों का अपमान कर रहे हैं। फिर कृतवर्मा मानवोचित स्वभाव का प्रदर्शन करते हुए अपने चित्त में उठते हुए द्वंद्वात्मक तरंगों को दबाने के लिए विपरीत भाव का परिलक्षण करने लगते हैं। प्रस्तुत है दीर्घ कविता “दुर्योधन कब मिट पाया” का बीसवां भाग।
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विकट विघ्न जब भी आता ,
या तो संबल आ जाता है ,
या जो सुप्त रहा मानव में ,
ओज प्रबल हो आता है।
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भयाक्रांत संतप्त धूमिल ,
होने लगते मानव के स्वर ,
या थर्र थर्र थर्र कम्पित होते ,
डग कुछ ऐसे होते नर ।
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विकट विघ्न अनुताप जला हो ,
क्षुधाग्नि संताप फला हो ,
अति दरिद्रता का जो मारा ,
कितने हीं आवेग सहा हो ।
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जिसकी माता श्वेत रंग के ,
आंटे में भर देती पानी,
दूध समझकर जो पी जाता ,
कैसी करता था नादानी ।
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गुरु द्रोण का पुत्र वही ,
जिसका जीवन बिता कुछ ऐसे ,
दुर्दिन से भिड़कर रहना हीं ,
जीवन यापन लगता जैसे।
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पिता द्रोण और द्रुपद मित्र के ,
देख देखकर जीवन गाथा,
अश्वत्थामा जान गया था ,
कैसी कमती जीवन व्यथा।
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यही जानकर सुदर्शन हर ,
लेगा ये अपलक्षण रखता ,
सक्षम न था तन उसका ,
पर मन में आकर्षण रखता ।
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गुरु द्रोण का पुत्र वोही क्या ,
विघ्न बाधा से डर जाता ,
दुर्योधन वो मित्र तुम्हारा ,
क्या भय से फिर भर जाता ?
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थोड़े रूककर कृपाचार्य फिर ,
हौले दुर्योधन से बोले ,
अश्वत्थामा के नयनों में ,
दहक रहे अग्नि के शोले ।
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घोर विघ्न को किंचित हीं ,
पुरुषार्थ हेतु अवसर माने ,
अश्वत्थामा द्रोण पुत्र ,
ले चला शरासन तत्तपर ताने।
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अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
कृपाचार्य दुर्योधन को बताते है कि हमारे पास दो विकल्प थे, या तो महाकाल से डरकर भाग जाते या उनसे लड़कर मृत्युवर के अधिकारी होते। कृपाचार्य अश्वत्थामा के मामा थे और उसके दु:साहसी प्रवृत्ति को बचपन से हीं जानते थे। अश्वत्थामा द्वारा पुरुषार्थ का मार्ग चुनना उसके दु:साहसी प्रवृत्ति के अनुकूल था, जो कि उसके सेनापतित्व को चरितार्थ हीं करता था। प्रस्तुत है दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया का उन्नीसवां भाग।
कृपाचार्य कृतवर्मा सहचर
मुझको फिर क्या होता भय, 
जिसे प्राप्त हो वरदहस्त शिव का
उसकी हीं होती जय।
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त्रास नहीं था मन मे  किंचित
निज तन मन व प्राण का,
पर चिंता एक सता रही
पुरुषार्थ त्वरित अभियान का।
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धर्माधर्म  की  बात नहीं
न्यूनांश ना मुझको दिखता था,
रिपु मुंड के अतिरिक्त ना
ध्येय अक्षि में टिकता था।
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ना सिंह भांति निश्चित हीं 
किसी एक श्रृगाल की भाँति,
घात लगा हम किये प्रतीक्षा
रात्रिपहर व्याल की भाँति।  
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कटु  सत्य है दिन में लड़कर
ना इनको हर सकता था,
भला एक हीं  अश्वत्थामा 
युद्ध  कहाँ लड़ सकता  था?
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जब तन्द्रा में सारे थे छिप कर
निज अस्त्र उठाया मैंने ,
निहत्थों पर चुनचुन कर हीं
घातक शस्त्र चलाया मैंने।
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दुश्कर,दुर्लभ,दूभर,मुश्किल
कर्म रचा जो बतलाता हूँ , 
ना चित्त में अफ़सोस बचा
ना रहा ताप ना पछताता हूँ। 
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तन मन पे भारी रहा बोझ अब
हल्का  हल्का लगता है,
आप्त हुआ है व्रण चित्त का ना
आज ह्रदय में फलता है।  
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जो सैनिक  योद्धा  बचे हुए थे
उनके  प्राण प्रहारक  हूँ , 
शिखंडी  का  शीश  विक्षेपक  
धृष्टद्युम्न  संहारक  हूँ।
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जो पितृवध से दबा हुआ
जीता था कल तक रुष्ट हुआ,
गाजर मुली सादृश्य  काट आज
अश्वत्थामा तुष्ट  हुआ। 
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
अश्रेयकर लक्ष्य संधान हेतु क्रियाशील हुए व्यक्ति को अगर सहयोगियों का साथ मिल जाता है तब उचित या अनुचित का द्वंद्व क्षीण हो जाता है। अश्वत्थामा दुर्योधन को आगे बताता है कि कृतवर्मा और कृपाचार्य का साथ मिल जाने के कारण उसका मनोबल बढ़ गया और वो पूरे जोश के साथ लक्ष्यसिद्धि हेतु अग्रसर हो चला।
कुछ क्षण पहले शंकित था मन
ना दृष्टित थी कोई आशा ,    
द्रोणपुत्र के पुरुषार्थ से
हुआ तिरोहित खौफ निराशा।
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या मर जाये या मारे  
चित्त में कर के ये दृढ निश्चय,
शत्रु शिविर को हुए अग्रसर  
हार फले कि या हो जय।
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याद किये फिर अरिसिंधु में  
मर के जो अशेष रहा,  
वो नर हीं विशेष रहा हाँ  
वो नर हीं विशेष रहा ।
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कि शत्रुसलिला में जिस नर के  
हाथों में तलवार रहे ,
या क्षय की हो दृढ प्रतीति
परिलक्षित  संहार बहे।
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वो मानव जो झुके नहीं
कतिपय निश्चित एक हार में,
डग योद्धा का डिगे नहीं
अरि के भीषण प्रहार में।
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ज्ञात मनुज के चित्त में किंचित
सर्वगर्भा काओज बहे ,
अभिज्ञान रहे निज कृत्यों का
कर्तव्यों की हीं खोज रहे।
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अकम्पत्व का हीं तन पे मन पे
धारण पोशाक हो ,
रण डाकिनी के रक्त मज्जा  
खेल  का मश्शाक  हो।
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क्षण का हीं तो मन है ये
क्षण को हीं टिका हुआ,
और तन का क्या मिट्टी  का  
मिटटी में मिटा हुआ।
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पर हार का वरण भी करके  
जो रहा अवशेष है,
जिस वीर के वीरत्व का
जन में  स्मृति शेष है।
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सुवाड़वाग्नि  सिंधु  में  नर  
मर के भी अशेष है,
जीवन वही विशेष है  
मानव वही विशेष है।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
इस क्षणभंगुर संसार में जो नर निज पराक्रम की गाथा रच जन मानस के पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है उसी का जीवन सफल होता है। अश्वत्थामा का अद्भुत  पराक्रम देखकर कृतवर्मा और कृपाचार्य भी मरने मारने का निश्चय लेकर आगे बढ़ चले।
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