एक डोर बंधी थी उस पतंग से,
उसे क़ैद करने की चाह थी या आज़ाद।
पर यह पतंग भी तो बेईमान है,
न जाने इसे किस बात का गुमान है।
जब हवा साथ दे तो खिल-खिलाता है,
खींचती डोर से सिसक संभल जाता है,
इसकी रवानी इन्हीं बीच तो बसी है,
बहते हवा सहलाते हाथ, बंधी डोर में फंसी है।
कभी आसमाँ छूने का जुनून,
तो कभी हवाओं संग बहने का सुकून,
ढिलती डोर अनंत दुनिया दिखाएगी,
खींचती डोर इसे दायरे भी सिखाएगी।
क्या हो अगर वो डोर टूट जाए,
उन हाथों से नखरे छूट जाए,
क्या वो बेशक़ रिहाई है,
या बे-बाक सी जुदाई है।
क्या वो छूटी डोर फिर से जुड़ जाएगा,
उन उलझी डोर से फिर उड़ पाएगा,
उसकी उड़ान में हाथों की परछाई है,
पर ये भी एक अधूरी सच्चाई है ।
पतंग ही वो डोर समेट आएगा,
हवा की लहरों पर इल्जाम लगाएगा,
हाथों को नए-नए ख्वाब दिखाएगा,
फिर अंत में उन्हीं लहरों संग उड़ जाएगा।
अब छोड़ ही दी, बंधन की वो डोर,
कर 'काई पो चे' का गूंजता शोर,
अब वो पतंग उड़े जहाँ हवा ले जाए,
रुख मोढ़ यहीं लौट के आए...!